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शब होते ही मेरी जानिब,चल पड़ते हैं सारे ग़म - ग़ज़ल/कामरान आदिल


                 ग़ज़ल              غزل

शब होते ही मेरी जानिब,चल पड़ते हैं सारे ग़म
सर से पा तक टूट चुका हूँ, मैं ढो ढो कर बारे ग़म

شب ہوتے ہی میری جانب چل پڑتے ہیں سارِ غم
سر سے پا تک ٹوٹ چکا ہوں میں ڈو ڈو کر بارِ غم

उसके ग़म में,मेरी हालत,ऐसी हालत,ना मुमक़िन
मुझमें शायद बैठ गया है छुप कर इक बीमारे ग़म

اس کے غم مے میری حالت اسی حالت نہ ممکن
مجھ میں شاید بیٹھ گیا ہے چپ کر اک بیمارِ غم

इक मजबूरी नाच रही है,बांध के घुंगरू महफ़िल में
और पलकों पर झूम रहे हैं, बन कर चाँद सितारे ग़म

اک مجبوری ناچ رہی ہے باندھ کے گھونگر محفل میں
اور پلکوں پر ناچ رہے ہیں بن کر چاند ستارے غم

तुमको ज़र्बे इश्क़ लगी है तुम किस्मत पर नाज़ करो
जिसके जितने ज़ख़्म हसीं हैं उसके उतने प्यारे ग़म

تم کو زربِ عشق لگی ہے تم قسمت پر ناز کرو
جس کے جتنے زخم حسیں ہیں اس کے اتنے پیارے غم

सारी उम्र कटी वहशत में हमको कुछ भी  याद नहीं
कितने साल ख़ुशी में गुज़रे,कितने साल गुज़ारे ग़म

ساری عمر کٹی وحشت میں ہمکو کوچھ یاد نہیں
کیتنے سال خوشی میں گزرے کیتنے سال گزارے غم

देखें तोहमत रखने वाले, क्या क्या तोहमत रखते हैं
आज कुऐं में कूद पड़ा है, लेकर कोई सारे ग़म

دکھیں توحمت رکھنے والے کیا کیا توحمت رکھتے ہیں
آج کنوئیں میں کد پڑا ہے لے کر کوئی سارے غم

हमको देखें, या फिर देखें ,आप किसी वीराने को
एक ही मिट्टी से पनपे हैं, उसके और हमारे ग़म

ہم کو دیکھں یا پھر دیکھیں آپ کسی ویرانے کو
ایک ہی مٹی سے پنپنے ہیں اس کے اور ہمارے غم

अपना अपना ज़र्फ़ है "आदिल" अपनी अपनी फ़ितरत है
उसने रो कर ज़िन्दा रख्खे, हमने हँस कर मारे ग़म

اپنا اپنا ظرف ہے عاؔدل اپنی اپنی فطرت ہے
اس نے روکر زندہ رکھکھے ہمنے ہنس کر مارے غم

कामरान "आदिल"         کامران عاؔدل

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1 Comments

  1. शुक्रिया मेटी नेटवर्क

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