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तज़ुर्बे


आज एक शिवभक्त भगवा वस्त्र पहने हुए ,हमारी कॉलोनी में दस बजे के आस पास मैंने देखा जो रोड से अंदर की ओर आ रहा था मैं भी उसी वक़्त रोड से अंदर कॉलोनी में आ रहा था, मैं अपनी कॉलोनी की बात बताऊँ मेरी कॉलोनी में पंद्रह हज़ार की आबादी है जो कि अस्सी प्रतिशत मुस्लिम है, पहले तो मैंने कांवड़िये को देख कर यह सोचा कि गलती से आ गया लेकिन फिर एक आदमी से कुछ पता पूछा मैं कुछ दूरी पर था तो सुन नहीं पाया खैर वो अंदर की और चलता जा रहा था मैं भी पीछे पीछे चल रहा था मैंने सोचा आज यह टेस्ट किया जाये की मेरे सम्प्रदाय के लोग इस अकेले के साथ कैसा बर्ताव करते है यही देखता मैं उसके पीछे चलता हुआ जा रहा था, वो थोड़ा रुका और इधर उधर देखने लगा तभी दो लड़के जो एक किराना की दुकान पर खड़े थे दुकान से उतरकर उसके पास पहुंचे मैं देख रहा था उन्होंने कांवड़िये को थोड़ा परेशान देखते हुए पूछा "क्या हुआ जी" उसने कहा हलवाई की दुकान कहाँ है उन्होंने बताया "जी थोड़ा ही आगे है" । बाहर रोड की दुकान मौसम खराब होने की वजह से बंद हो गई थी और उसे दूध चाहिए था ।
                            मैं यहाँ फोकस कांवड़िये पर नहीं मुल्लों पर कराना चाह रहा हूँ । यह तो तज़ुर्बा सम्प्रदाय विशेष के मोहल्ले का था, मेरे पास दूसरे सम्प्रदाय के मोहल्ले का तज़ुर्बा भी है लेकिन वो नहीं लिखूंगा क्योंकि उसे मैंने यह सोच कर नज़रअंदाज़ कर दिया कि ख़राब लोग सभी जगह होते है सभी सम्प्रदाय में होते है ।
                          मैं ऐसे भारत की कल्पना करता हूँ जहाँ एक भी साम्प्रदायिक झगड़ा, दंगा न हो जहाँ एक दुसरे की छोटी छोटी गलती को माफ़ करके तालमेल बैठे ।

                      ✒  आसिफ कैफ़ी सलमानी
               Written By - Asif Kaifi Salmani

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