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औरतें - नामर्दों की शिकार




औरतें हमेशा से दंगाइयों के लिए सबसे "सॉफ्ट टारगेट" रहीं है
जब भी कभी देश में या दुनिया में कोई दंगा फ़साद छिड़ा वहीं औरतों के साथ सबसे ज़्यादा बुरा हुआ है
चाहे वो बटवारें के वक़्त के दंगे हो, चाहे गुजरात दंगे हो, मुज़फ्फरनगर दंगे या अब मणिपुर दंगे
औरतें ही पिसी है और पिसे भी क्यों ना जब गैंगरेप और हत्याओं के सज़ायाफ्ता कैदियों को जेल से छोड़कर उनका सम्मान किया जाएगा तो क्या ख़ाक ड़र रहेगा उन नीच, निर्लज्ज और सुअर लोगों के दिल में जो दूसरे की बहन, बेटियों और बीवियों के साथ ग़लत करते हैं, उनकी इज़्ज़त तार तार करते हैं, सिस्टम इतना गल-सड़ चुका है कि चार दिन फड़फड़ाने के बाद अगली ऐसी ही घटना होने तक शांत हो जाता है कोई सख़्त क़दम नहीं, कोई सख़्त सज़ा नहीं फिर क्यों रुकने लगे ऐसे जघन्य अपराध और फिर क्यों डरने लगे ऐसे समाज पर कलंक लोग
किसी भी बात पर हुआ फ़साद का मतलब ये कैसे हुआ कि औरतों के साथ अभद्रता की जाए या ये नामर्द होते है जिनका बस सिर्फ औरतों पर चलता है बल्कि ये लोग होते ही नामर्द है जो दंगे फसादों में औरतों के साथ दुर्व्यवहार करते है
किसी औरत के साथ ऐसा करते हुए क्या उन्हें ये याद नहीं रहता कि जिसनें पैदा किया वो मां भी मेरी औरत है, जो मेरे साथ रही पाली बढ़ी वो बहन भी औरत है, जो दुःख सुख में हमेशा साथ है और साथ रहती है वो पत्नी भी औरत है और छोटी सी, प्यारी सी घर चहचहाने वाली घर में जो वो बेटी है वो भी औरत ही है फिर कैसे किसी औरत के साथ ऐसी शर्म से सर झुकाने वाली वारदातें अंजाम दी जाती है उन्हें ग़ैरत जगाने वाला कोई रहता नहीं या सब वहशी बन जाते है जैसे गिद्धों को पता नहीं होता कौन है किसका है कैसा है बस मांस हो उसे नोंच देते है वैसे ही ये समाज में मानव रुपी गिद्ध है और है तो इन्हें बांध कर ऐसी सज़ा दी जाए कि आने वाली इनके जैसे लोग इनका जैसा करने की सोच ही ना सकें लेकिन ऐसा करने वाला है कौन
फिर चुप हो जाते है अगली ऐसी ही किसी घटना होने तक ...

द्वारा लिखित - आसिफ क़ैफ़ी

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