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पुरानी डायरी - लघु कथा


पुरानी डायरी

अब कहाँ चली गई, कब से ढूंढ रहा हूँ
वो पुरानी सी डायरी
कल ही तो मैं उसको अपने सीने पर रखे हुए लेटा था
क्यों इतने बेचैन हो ?
ऐसा क्या था उस डायरी में ?
तुम पूछ रहे हो ऐसा क्या था
"रूह समझते हो ना रूह"
रूह बसी थी उसमें मेरी
मैं उसे कितना संजो कर रखता था
कहाँ गुम हो गई अचानक 
तुम्हें पता है? मेरे पास एक तोता हुआ करता था 
जिसे मैं बहुत-बहुत प्यार करता था
वो एक दिन इसी तरह बिछड़ गया था मुझसे
"लेकिन मेरे पास उसका फ़ोटो है" 
मुझे जब भी उसकी याद आती है
मैं वो फ़ोटो देख लेता हूँ, तो मेरा कुछ दर्द कम हो जाता है
ऐसे ही वो डायरी मेरे लिए,
इस फ़ोटो जैसी थी 
क्यों कि उसमें मुझे उसका अक़्स नज़र आता था
उसने तोहफ़े में दी थी बरसों पहले
"पीछे दिल बना कर उसमें मेरा और अपना नाम लिखकर"
और उसी के साथ इक सुर्ख़ ग़ुलाब दिया था
जो अभी भी उसमें मौजूद है
मुझे उस डायरी से उसकी खुशबू आती थी
उस डायरी के वर्क़-वर्क़ पर उसकी निशानियां मौजूद थीं
जब भी मैं उन निशानियों को देखता था
तो लगता था वो अभी भी मेरे साथ है
उसे छू कर महसूस होता था
मैं उसके नाज़ुक बदन को छू रहा हूँ ,
उसके ओराक़ मेरी उंगलियों से अठखेलियाँ करते थे,
उसे देखे से आँखों में एक चमक भर जाती थी
वो आदतन ऐसी ही थी 
ख़ामोश और सादा मिज़ाज आहहहह,
"कहीं वो मुझसे एक बार फिर तो नहीं बिछड़ गई"

✒️ आसिफ कैफ़ी सलमानी
       Asif Kaifi Salmani

रूह - आत्मा
संजोना - संवारकर
अक़्स - छाया, प्रतिबिंब
सुर्ख़ - गाढ़ा लाल
ओराक़ - पन्ने, पेज
मिज़ाज - स्वभाव

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